Light at the end of a tunnel called अंधेरी!
- Pawan Upadhyaya
- May 29, 2024
- 3 min read
मैं जब भी अंधेरी रेलवे स्टेशन से मेट्रो स्टेशन की ओर बढ़ता हूँ मुझे वहाँ एक बुढ़िया भीख माँगते हुए दिखायी देती है। वो रोज़ एक ही रंग की सलवार पहनती है। हो सकता है उसने कहीं किसी पॉडकास्ट में सुन लिया हो कि काम पे एक ही तरह के कपड़े पहन के जाने से समय बचता है। या वो रोज़ वही मैली सलवार इसलिए पहनती है ताकि किसी देखने वाले की आँख भर आये और वो अपनी जेब ख़ाली कर दे। या ये भी हो सकता है कि उसके पास सच मे दूसरी सलवार ना हो। ख़ैर, मुझे क्या मैं तो जल्दी में हूँ। मुझे अगली मेट्रो पकड़नी है वरना सरकार गिर जाएगी, ग्लेशियर पिघल जाएँगे, ग्लोबल वार्मिंग---छोड़िए, इसके बारे में ज़रूर लिखता पर अभी ब्लास्ट पे AC चला रखा है।
पर उस पुल के एक छोर से दूसरे छोर तक जाने में लगता है मैंने सावन का हर रंग देख लिया हो। किसी कोने एक भूखा लड़का पसीने में सील रही कड़क बुशर्ट और क्लीचदार पैंट पहन के क्रेडिट कार्ड बेच रहा है। बहुत देर तक एक अमेरिकन बर्गर जॉइंट को एकटक देखने के बाद वो पास वाली दुकान से दस रुपए का वड़ापाव खा लेता है। पता नहीं कब इस महीने का कोटा पूरा होगा और इसे incentive मिलेगा। वही incentive जिससे ये iPhone लेने के सपने देख रहा है। मुझे इस लड़के में अपना एक हिस्सा दिखता है।
फिर कहीं देखता हूँ कोई अपने रिश्ते को बचाने के लिए आख़िरी मोहलत माँग रहा है। लड़का बहुत मिन्नतें करता है। लड़की उसकी हर बात को Math के ग़लत जवाब की तरह काट देती है। लड़की प्यार में बराबरी की बात करती है। लड़के का मुँह लटक जाता है। पता नहीं किसने प्यार में कामयाब होने के लिए LHS = RHS का formula बना दिया। प्रेम तो वो प्रमेय है जो अप्रमेय है। किसी एक को तो limitless होना पड़ेगा प्यार की जीत के लिए। अगर यहाँ इतनी भीड़ नहीं होती तो शायद लड़का हाथ जोड़ लेता। पर ego और बांस में एक ही बात common है। दोनों बहुत बड़े होते हैं। मैं चाहता हूँ थोड़ी देर रुक के उनके बीच की बातें सुनूँ। कभी प्यार में डूबे दो दिल भला इतने कड़वे कैसे हो जाते हैं? पर time कहाँ है। मैं आगे बढ़ जाता हूँ। फिर एकाएक सोचता हूँ कि शायद उनके पास प्यार तो होगा पर Time नहीं।
पुल पे बह रही इंसानों की नदी में दो-चार झटके खाने के बाद सम्हल ही रहा होता हूँ कि आठ-दस साल की एक बच्ची मेरे पास पेन बेचने आ जाती है। उसकी आँखों की चमक मेरी आत्मा दाग देती है। मन करता है उसका पूरा पैकेट ख़रीद लूँ और उसी स्याही से पूरे बंबई में इतनी कड़वी कवितायें लिखूँ कि पढ़ने वाले की आत्मा भी वैसे ही जल जाए जैसे मेरी इस लड़की को देख के जल रही है। भला आठ-नौ साल की लड़की को क्यों अपना बचपन बेचना पड़ रहा है? कहाँ जा रहा है देश? कहाँ डूब रही है इंसानियत? ये कहाँ थमेगा? एक तरफ़ ये सारे सवाल कौंधते हैं और दूसरी तरफ़ एक mail आता है। “Please send it by EOD.” मैं क़रीब-क़रीब दौड़ने लगता हूँ।
जब शाम को सब काम निपटा के लौट रहा होता हूँ तो मुझे फिर वही बुढ़िया दिखती है। वही बच्ची दिखती है। वो क्रेडिट कार्ड वाला लड़का दिखता है। कोई हाथ जोड़ के मोहलत माँगता दिख जाता है। पर इस बार इन्हें देख के उतनी बेचैनीं नहीं होती। लगता है ये तो इनका routine है। इनके लिए कितनी संवेदना बहाओगे। ये इस cycle को तोड़ना ही नहीं चाहते। मनुष्य योनि में पैदा होने का क्या फ़ायदा जब कुएँ का मेंढक बन के ही रहना है। इनके लिए empathy दिखाना माने हाथी को Zumba करवाना। Total Waste! छोड़ो! और ये सब सोचते हुए मैं घर के ओर जाने वाली ट्रेन में बैठ जाता हूँ और फ़ोन में 5:00 AM का अलार्म लगा लेता हूँ।
Comments